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    जातीय जनगणना की राह क्यों है मुश्किल? सरनेम बना सबसे बड़ी चुनौती

    जातीय जनगणना की राह क्यों है मुश्किल? सरनेम बना सबसे बड़ी चुनौती

    भारत में जातीय जनगणना को लेकर एक बार फिर चर्चा तेज हो गई है। केंद्र सरकार की ओर से इसे लागू करने के संकेत दिए गए हैं, लेकिन इस प्रक्रिया को सफलतापूर्वक संपन्न करना आसान नहीं है। 1931 के बाद अब तक कोई आधिकारिक जातीय जनगणना नहीं हुई है। 2011 में मनमोहन सिंह सरकार ने एक सामाजिक-आर्थिक जातीय सर्वे जरूर कराया, लेकिन आंकड़ों की विसंगतियों के कारण उसे सार्वजनिक नहीं किया गया।

    सरनेम बना सबसे बड़ी अड़चन

    जातियों की पहचान के लिए सरनेम को एक अहम आधार माना जाता है, लेकिन यह पद्धति पूरे देश में एकसमान नहीं है। उदाहरण के लिए, अकाली दल नेता सुखबीर सिंह बादल का सरनेम "बादल" उनके गांव का नाम है, न कि उनकी जाति का। इसी तरह पुरुषोत्तम रूपाला का उपनाम भी गांव से जुड़ा है। ऐसे में कंप्यूटर आधारित जाति विश्लेषण सरनेम के आधार पर असंभव हो जाता है।

    लोगों को खुद जाति बताने का विकल्प भी जटिल

    कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि हर व्यक्ति को अपनी जाति बताने का अवसर दिया जाना चाहिए, लेकिन इसका एक गंभीर पक्ष यह है कि OBC (अन्य पिछड़ा वर्ग) में शामिल होने से सरकारी लाभ मिलने लगते हैं। ऐसे में बड़ी संख्या में लोग गलत जानकारी दे सकते हैं, जिससे जनगणना के आंकड़े विश्वसनीय नहीं रहेंगे।

    जातियों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि

    1931 की जनगणना में 4147 जातियों को दर्ज किया गया था, जबकि 2011 में यह आंकड़ा 46.80 लाख

    सरकार के सामने हैं ये प्रमुख चुनौतियाँ:

    • सरनेम और जाति में मेल का अभाव
    • डेटा वेरिफिकेशन की कठिन प्रक्रिया
    • लोगों द्वारा गलत जानकारी देने की आशंका
    • आंकड़ों की वैधता और उपयोगिता पर सवाल

    क्या हो सकता है समाधान?

    विशेषज्ञों का मानना है कि जातीय जनगणना को सफल बनाने के लिए स्थानीय प्रशासन और सामाजिक संगठनों की भागीदारी जरूरी होगी। साथ ही, एक डेटा वेरिफिकेशन तंत्र भी विकसित करना होगा ताकि प्राप्त जानकारी विश्वसनीय हो।

    निष्कर्ष

    जातीय जनगणना का विचार सामाजिक नीति निर्धारण के लिए जरूरी है, लेकिन इसके क्रियान्वयन में अनेक व्यवहारिक और तकनीकी चुनौतियाँ हैं। सरनेम आधारित पहचान प्रणाली की सीमाएं, लोगों की गलत प्रवृत्तियाँ और जातियों की अत्यधिक संख्या जैसी समस्याएं इसे और जटिल बना देती हैं। यदि सरकार इसे पारदर्शिता और सावधानी से लागू करती है, तो यह सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बन सकता है।